Lekhika Ranchi

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उपन्यास-गोदान-मुंशी प्रेमचंद


गोदान--मु

झुनिया को अपने घर का चौका-बरतन, झाड़ू-बहारू, रोटी-पानी सभी कुछ करना पड़ता। दिन को तो दोनों चना-चबेना खाकर रह जाते, रात को जब मालती आ जाती, तो झुनिया अपना खाना पकाती और मालती बच्चे के पास बैठती। वह बार-बार चाहती कि बच्चे के पास बैठे; लेकिन मालती उसे न आने देती। रात को बच्चे का ज्वर तेज़ होता जाता और वह बेचैन होकर दोनों हाथ उपर उठा लेता। मालती उसे गोद में लेकर घंटों कमरे में टहलती। चौथ दिन उसे चेचक निकल आयी। मालती ने सारे घर को टीका लगाया, ख़ुद टीका लगवाया, मेहता को भी लगाया। गोबर, झुनिया, महाराज, कोई न बचा। पहले दिन तो दाने छोटे थे और अलग-अलग थे। जान पड़ता था, छोटी माता हैं। दूसरे दिन जैसे खिल उठे और अंगूर के दाने के बराबर हो गये और फिर कई-कई दाने मिलकर बड़े-बड़े आँवले जैसे हो गये। मंगल जलन और खुजली और पीड़ा से बेचैन होकर करुण स्वर में कराहता और दीन, असहाय नेत्रों से मालती की ओर देखता। उसका कराहना भी प्रौढ़ों का-सा था, और दृष्टि में भी प्रौढ़ता थी, जैसे वह एकाएक जवान हो गया हो। इस असह्य वेदना ने मानो उसके अबोध शिशुपन को मिटा डाला हो। उसकी शिशु-बुद्धि मानो सज्ञान होकर समझ रही थी कि मालती ही के जतन से वह अच्छा हो सकता है। मालती ज्यों ही किसी काम से चली जाती, वह रोने लगता। मालती के आते ही चुप हो जाता। रात को उसकी बेचैनी बढ़ जाती और मालती को प्रायः सारी रात बैठना पड़ जाता; मगर वह न कभी झुँझलाती, न चिढ़ती। हाँ, झुनिया पर उसे कभी-कभी अवश्य क्रोध आता, क्योंकि वह अज्ञान के कारण जो न करना चाहिए, वह कर बैठती। गोबर और झुनिया दोनों की आस्था झाड़-फूँक में अधिक थी; यहाँ उसको कोई अवसर न मिलता। उस पर झुनिया दो बच्चे की माँ होकर बच्चे का पालन करना न जानती थी, मंगल दिक करता, तो उसे डाँटती-कोसती। ज़रा-सा भी अवकाश पाती, तो ज़मीन पर सो जाती और सबेरे से पहले न उठती; और गोबर तो उस कमरे में आते जैसे डरता था। मालती वहाँ बैठी है, कैसे जाय? झुनिया से बच्चे का हाल-हवाल पूछ लेता और खाकर पड़ रहता। उस चोट के बाद वह पूरा स्वस्थ न हो पाया था। थोड़ा-सा काम करके भी थक जाता था। उन दिनों जब झुनिया घास बेचती थी और वह आराम से पड़ा रहता था, वह कुछ हरा हो गया था; मगर इधर कई महीने बोझ ढोने और चूने-गारे का काम करने से उसकी दशा गिर गयी थी। उस पर यहाँ काम बहुत था। सारे बाग़ को पानी निकालकर सींचना, क्यारियों को गोड़ना, घास छीलना, गायों को चारा-पानी देना और दुहना। और जो मालिक इतना दयालु हो, उसके काम में कान-चोरी कैसे करे? यह एहसान उससे एक क्षण भी आराम से न बैठने देता, और जब मेहता ख़ुद खुरपी लेकर घंटों बाग़ में काम करते तो वह कैसे आराम करता? वह ख़ुद सूखता था; पर बाग़ हरा हो रहा था। मिस्टर मेहता को भी बालक से स्नेह हो गया था। एक दिन मालती ने उसे गोद में लेकर उनकी मूँछ उखड़वा दी थी। दुष्ट ने मूँछों को ऐसा पकड़ा था कि समूल ही उखाड़ लेगा। मेहता की आँखों में आँसू भर आये थे। मेहता ने बिगड़कर कहा था -- बड़ा शैतान लौंडा है। मालती ने उन्हें डाँटा था -- तुम मूँछें साफ़ क्यों नहीं कर लेते?

'मेरी मूँछें मुझे प्राणों से प्रिय हैं। '
'अबकी पकड़ लेगा, तो उखाड़कर ही छोड़ेगा। '
'तो मैं इसके कान भी उखाड़ लूँगा।
मंगल को उनकी मूँछें उखाड़ने में कोई ख़ास मज़ा आया था। वह ख़ूब खिलखिलाकर हँसा था और मूँछों को और ज़ोर से खींचा था; मगर मेहता को भी शायद मूँछें उखड़वाने में मज़ा आया था; क्योंकि वह प्रायः दो एक बार रोज़ उससे अपनी मूँछों की रस्साकशी करा लिया करते थे। इधर जब से मंगल को चेचक निकल आयी थी, मेहता को भी बड़ी चिन्ता हो गयी थी। अकसर कमरे में जाकर मंगल को व्यथित आँखों से देखा करते। उसके कष्टों की कल्पना करके उनका कोमल हृदय हिल जाता था। उनके दौड़-धूप से वह अच्छा हो जाता, तो पृथ्वी के उस छोर तक दौड़ लगाते; रुपए ख़र्च करने से अच्छा होता, तो चाहे भीख ही माँगना पड़ता, वह उसे अच्छा करके ही रहते; लेकिन यहाँ कोई बस न था। उसे छूते भी उनके हाथ काँपते थे। कहीं उसके आबले न टूट जायँ। मालती कितने कोमल हाथों से उसे उठाती है, कन्धे पर उठाकर कमरे में टहलती है और कितने स्नेह से उसे बहलाकर दूध पिलाती है, यह वात्सल्य मालती को उनकी दृष्टि में न जाने कितना ऊँचा उठा देता है। मालती केवल रमणी नहीं है, माता भी है और ऐसी-वैसी माता नहीं सच्चे अथों में देवी और माता और जीवन देनेवाली, जो पराये बालक को भी अपना समझ सकती है, जैसे उसने मातापन का सदैव संचय किया हो और आज दोनों हाथों से उसे लुटा रही हो। उसके अंग-अंग से मातापन फूटा पड़ता था, मानो यही उसका यथार्थ रूप हो, यह हाव-भाव, यह शौक़-सिंगार उसके मातापन के आवरण-मात्र हों, जिसमें उस विभूति की रक्षा होती रहे। रात को एक बज गया था। मंगल का रोना सुनकर मेहता चौंक पड़े। सोचा, बेचारी मालती आधी रात तक तो जागती रही होगी, इस वक़्त उसे उठने में कितना कष्ट होगा; अगर द्वार खुला हो तो मैं ही बच्चे को चुप करा दूँ। तुरन्त उठकर उस कमरे के द्वार पर आये और शीशे से अन्दर झाँका। मालती बच्चे को गोद में लिये बैठी थी और बच्चा अनायास ही रो रहा था। शायद उसने कोई स्वप्न देखा था, या और किसी वजह से डर गया था। मालती चुमकारती थी, थपकती थी, तसवीरें दिखाती थी, गोद में लेकर टहलती थी, पर बच्चा चुप होने का नाम न लेता था। मालती का यह अटूट वात्सल्य, यह अदम्य मातृ-भाव देखकर उनकी आँखें सजल हो गयीं। मन में ऐसा पुलक उठा कि अन्दर जाकर मालती के चरणों को हृदय से लगा लें। अन्तस्तल से अनुराग में डूबे हुए शब्दों का एक समूह मचल पड़ा -- प्रिये, मेरे स्वर्ग की देवी, मेरी रानी, डारलिंग...। और उसी प्रेमोन्माद में उन्होंने पुकारा -- मालती, ज़रा द्वार खोल दो।
मालती ने आकर द्वार खोल दिया और उनकी ओर जिज्ञासा की आँखों से देखा। मेहता ने पूछा -- क्या झुनिया नहीं उठी? यह तो बहुत रो रहा है।
मालती ने समवेदना भरे स्वर में कहा -- आज आठवाँ दिन है पीड़ा अधिक होगी। इसी से।
'तो लाओ, मैं कुछ देर टहला दूँ, तुम थक गयी हो। '
मालती ने मुस्कराकर कहा -- तुम्हें ज़रा ही देर में ग़ुस्सा आ जायगा!
बात सच थी; मगर अपनी कमज़ोरी को कौन स्वीकार करता है? मेहता ने ज़िद करके कहा -- तुमने मुझे इतना हल्का समझ लिया है?
मालती ने बच्चे को उनकी गोद में दे दिया। उनकी गोद में जाते ही वह एकदम चुप हो गया। बालकों में जो एक अन्तर्ज्ञान होता है, उसने उसे बता दिया, अब रोने में तुम्हारा कोई फ़ायदा नहीं। यह नया आदमी स्त्री नहीं, पुरुष है और पुरुष ग़ुस्सेवर होता है और निर्दयी भी होता है और चारपाई पर लेटाकर, या बाहर अँधेरे में सुलाकर दूर चला जा सकता है और किसी को पास आने भी न देगा। मेहता ने विजय-गर्व से कहा -- देखा, कैसा चुप कर दिया। मालती ने विनोद किया -- हाँ, तुम इस कला में कुशल हो। कहाँ सीखी? ' तुमसे। ' ' मैं स्त्री हूँ और मुझ पर विश्वास नहीं किया जा सकता। ' मेहता ने लज्जित होकर कहा -- मालती, मैं तुमसे हाथ जोड़कर कहता हूँ, मेरे उन शब्दों को भूल जाओ। इन कई महीनों में मैं कितना पछताया हूँ, कितना लज्जित हुआ हूँ, कितना दुखी हुआ हूँ, शायद तुम इसका अन्दाज़ न कर सको। मालती ने सरल भाव से कहा -- मैं तो भूल गयी, सच कहती हूँ।
'मुझे कैसे विश्वास आये? '
'उसका प्रमाण यही है कि हम दोनों एक ही घर में रहते हैं, एक साथ खाते हैं, हँसते हैं, बोलते हैं। '
'क्या मुझे कुछ याचना करने की अनुमति न दोगी? '

उन्होंने मंगल को खाट पर लिटा दिया, जहाँ वह दबककर सो रहा। और मालती की ओर प्रार्थी आँखों से देखा जैसे उसी अनुमति पर उनका सब कुछ टिका हुआ हो। मालती ने आर्द्र होकर कहा -- तुम जानते हो, तुमसे ज़्यादा निकट संसार में मेरा कोई दूसरा नहीं है। मैंने बहुत दिन हुए, अपने को तुम्हारे चरणों पर समर्पित कर दिया। तुम मेरे पथ-प्रदर्शक हो, मेरे देवता हो, मेरे गुरु हो। तुम्हें मुझसे कुछ याचना करने की ज़रूरत नहीं, मुझे केवल संकेत कर देने की ज़रूरत है। जब मुझे तुम्हारे दर्शन न हुए थे और मैंने तुम्हें पहचाना न था, भोग और आत्म-सेवा ही मेरे जीवन का इष्ट था। तुमने आकर उसे प्रेरणा दी, स्थिरता दी। मैं तुम्हारे एहसान कभी नहीं भूल सकती। मैंने नदी की तटवाली तुम्हारी बातें गाँठ बाँध लीं। दुःख यही हुआ कि तुमने भी मुझे वही समझा जो कोई दूसरा पुरुष समझता, जिसकी मुझे तुमसे आशा न थी। उसका दायित्व मेरे ऊपर है, यह मैं जानती हूँ; लेकिन तुम्हारा अमूल्य प्रेम पाकर भी मैं वही बनी रहूँगी, ऐसा समझकर तुमने मेरे साथ अन्याय किया। मैं इस समय कितने गर्व का अनुभव कर रही हूँ यह तुम नहीं समझ सकते। तुम्हारा प्रेम और विश्वास पाकर अब मेरे लिए कुछ भी शेष नहीं रह गया है। यह वरदान मेरे जीवन को सार्थक कर देने के लिए काफ़ी है। यह मेरी पूणर्ता है। यह कहते-कहते मालती के मन में ऐसा अनुराग उठा कि मेहता के सीने से लिपट जाय। भीतर की भावनाएँ बाहर आकर मानो सत्य हो गयी थीं। उसका रोम-रोम पुलकित हो उठा। जिस आनन्द को उसने दुरलभ समझ रखा था, वह इतना सुलभ इतना समीप है! और हृदय का वह आह्लाद मुख पर आकर उसे ऐसी शोभा देने लगा कि मेहता को उसमें देवत्व की आभा दिखी। यह नारी है; या मंगल की, पवित्रता की और त्याग की प्रतिमा! उसी वक़्त झुनिया जागकर उठ बैठी और मेहता अपने कमरे में चले गये और फिर दो सप्ताह तक मालती से कुछ बातचीत करने का अवसर उन्हें न मिला। मालती कभी उनसे एकान्त में न मिलती। मालती के वह शब्द उनके हृदय में गूँजते रहते। उनमें कितनी सान्त्वना थी, कितनी विनय थी, कितना नशा था! दो सप्ताह में मंगल अच्छा हो गया। हाँ, मुँह पर चेचक के दाग़ न भर सके। उस दिन मालती ने आस-पास के लड़कों को भर पेट मिठाई खिलाई और जो मनौतियाँ कर रखी थीं, वह भी पूरी कीं। इस त्याग के जीवन में कितना आनन्द है, इसका अब उसे अनुभव हो रहा था। झुनिया और गोबर का हर्ष मानो उसके भीतर प्रतिबिम्बित हो रहा था। दूसरों के कष्ट-निवारण में उसने जिस सुख और उल्लास का अनुभव किया, वह कभी भोग-विलास के जीवन में न किया था। वह लालसा अब उन फूलों की भाँति क्षीण हो गयी थी जिसमें फल लग रहे हों। अब वह उस दर्जे से आगे निकल चुकी थी, जब मनुष्य स्थूल आनन्द को परम सुख मानता है। यह आनन्द अब उसे तुच्छ पतन की ओर ले जानेवाला, कुछ हलका, बल्कि बीभत्स-सा लगता था। उस बड़े बँगले में रहने का क्या आनन्द जब उसके आस-पास मिट्टी के झोपड़े मानो विलाप कर रहे हों। कार पर चढ़कर अब उसे गर्व नहीं होता। मंगल जैसे अबोध बालक ने उसके जीवन में कितना प्रकाश डाल दिया, उसके सामने सच्चे आनन्द का द्वार-सा खोल दिया। एक दिन मेहता के सिर में ज़ोर का दर्द हो रहा था। वह आँखें बन्द किये चारपाई पर पड़े तड़प रहे थे कि मालती ने आकर उनके सिर पर हाथ रखकर पूछा -- कब से यह दर्द हो रहा है? मेहता को ऐसा जान पड़ा, उन कोमल हाथों ने जैसे सारा दर्द खींच लिया। उठकर बैठ गये और बोले -- दर्द तो दोपहर से ही हो रहा था और ऐसा सिर-दर्द मुझे आज तक नहीं हुआ था, मगर तुम्हारे हाथ रखते ही सिर ऐसा हल्का हो गया है मानो दर्द था ही नहीं। तुम्हारे हाथों में यह सिद्धि है। मालती ने उन्हें कोई दवा लाकर खाने को दे दी और आराम से लेट रहने को ताकीद करके तुरन्त कमरे से निकल जाने को हुई। मेहता ने आग्रह करके कहा -- ज़रा दो मिनट बैठोगी नहीं? मालती ने द्वार पर से पीछे फिरकर कहा -- इस वक़्त बातें करोगे तो शायद फिर दर्द होने लगे। आराम से लेटे रहो। आज-कल मैं तुम्हें हमेशा कुछ-न-कुछ पढ़ते या लिखते देखती हूँ। दो-चार दिन लिखना-पढ़ना छोड़ दो।

'तुम एक मिनट बैठोगी नहीं? '
'मुझे एक मरीज़ को देखने जाना है। '
'अच्छी बात है, जाओ। '
मेहता के मुख पर कुछ ऐसी उदासी छा गयी कि मालती लौट पड़ी और सामने आकर बोली -- अच्छा कहो, क्या कहते हो? मेहता ने विमन होकर कहा -- कोई ख़ास बात नहीं है। यही कह रहा था कि इतनी रात गये किस मरीज़ को देखने जाओगी?
'वही राय साहब की लड़की है। उसकी हालत बहुत ख़राब हो गयी थी। अब कुछ सँभल गयी है। '

उसके जाते ही मेहता फिर लेट रहे। कुछ समझ में नहीं आया कि मालती के हाथ रखते ही दर्द क्यों शान्त हो गया। अवश्य ही उसमें कोई सिद्धि है और यह उसकी तपस्या का, उसकी कर्मण्य मानवता का ही वरदान है। मालती नारीत्व के उस ऊँचे आदर्श पर पहुँच गयी थी, जहाँ वह प्रकाश के एक नक्षत्र-सी नज़र आती थी। अब वह प्रेम की वस्तु नहीं, श्रद्धा की वस्तु थी। अब वह दुरलभ हो गयी थी और दुलभता मनस्वी आत्माओं के लिए उद्योग का मन्त्र है। मेहता प्रेम में जिस सुख की कल्पना कर रहे थे उसे श्रद्धा ने और भी गहरा, और भी स्फूतिर्मय बना दिया। प्रेम में कुछ मान भी होता है, कुछ महत्व भी। श्रद्धा तो अपने को मिटा डालती है और अपने मिट जाने को ही अपना इष्ट बना लेती है। प्रेम अधिकार कराना चाहता है, जो कुछ देता है, उसके बदले में कुछ चाहता भी है। श्रद्धा का चरम आनन्द अपना समर्पण है, जिसमें अहम्मन्यता का ध्वंस हो जाता है। मेहता का वह बृहत् ग्रन्थ समाप्त हो गया था, जिसे वह तीन साल से लिख रहे थे और जिसमें उन्होंने संसार के सभी दर्शन-तत्वों का समन्वय किया था। यह ग्रन्थ उन्होंने मालती को समपिर्त किया, और जिस दिन उसकी प्रतियाँ इंगलैंड से आयीं और उन्होंने एक प्रति मालती को भेंट की, तो वह उसे अपने नाम से समपिर्त देखकर विस्मित भी हुई और दुखी भी। उसने कहा -- यह तुमने क्या किया? मैं तो अपने को इस योग्य नहीं समझती।

मेहता ने गर्व से कहा -- लेकिन मैं तो समझता हूँ। यह तो कोई चीज़ नहीं। मेरे तो अगर सौ प्राण होते, तो वह तुम्हारे चरणों पर न्योछावर कर देता।
'मुझ पर! जिसने स्वार्थ-सेवा के सिवा कुछ जाना ही नहीं। '
'तुम्हारे त्याग का एक टुकड़ा भी मैं पा जाता, तो अपने को धन्य समझता। तुम देवी हो। '
'पत्थर की, इतना और क्यों नहीं कहते? '
'त्याग की, मंगल की, पवित्रता की। '

'तब तुमने मुझे ख़ूब समझा। मैं और त्याग! मैं तुमसे सच कहती हूँ, सेवा या त्याग का भाव कभी मेरे मन में नहीं आया। जो कुछ करती हूँ, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष स्वार्थ के लिए करती हूँ। मैं गाती इसलिए नहीं कि त्याग करती हूँ, या अपने गीतों से दुखी आत्माओं को सान्त्वना देती हूँ; बल्कि केवल इसलिए कि उससे मेरा मन प्रसन्न होता है। इसी तरह दवा-दारू भी ग़रीबों को दे देती हूँ; केवल अपने मन को प्रसन्न करने के लिए। शायद मन का अहंकार इसमें सुख मानता है। तुम मुझे ख़्वाहमख़्वाह देवी बनाये डालते हो। अब तो इतनी कसर रह गयी है कि धूप-दीप लेकर मेरी पूजा करो। ' मेहता ने कातर स्वर में कहा -- वह तो मैं बरसों से कर रहा हूँ, मालती, और उस वक़्त तक करता जाऊँगा जब तक वरदान न मिलेगा। मालती ने चुटकी ली -- तो वरदान पा जाने के बाद शायद देवी को मन्दिर से निकाल फेंको। मेहता सँभलकर बोले -- अब तो मेरी अलग सत्ता ही न रहेगी -- उपासक उपास्य में लय हो जायगा। मालती ने गम्भीर होकर कहा -- नहीं मेहता, मैं महीनों से इस प्रश्न पर विचार कर रही हूँ और अन्त में मैंने यह तय किया है कि मित्र बनकर रहना स्त्री-पुरुष बनकर रहने से कहीं सुखकर है। तुम मुझसे प्रेम करते हो, मुझ पर विश्वास करते हो, और मुझे भरोसा है कि आज अवसर आ पड़े तो तुम मेरी रक्षा प्राणों से करोगे। तुममें मैंने अपना पथ-प्रदर्शक ही नहीं, अपना रक्षक भी पाया है। मैं भी तुमसे प्रेम करती हूँ, तुम पर विश्वास करती हूँ, और तुम्हारे लिए कोई ऐसा त्याग नहीं है, जो मैं न कर सकूँ। और परमात्मा से मेरी यही विनय है कि वह जीवन-पर्यन्त मुझे इसी मार्ग पर दृढ़ रखे। हमारी पूर्णता के लिए, हमारी आत्मा के विकास के लिए, और क्या चाहिए? अपनी छोटी-सी गृहस्थी बनाकर, अपनी आत्माओं को छोटे-से पिंजड़े में बन्द करके, अपने दुःख-सुख को अपने ही एक रखकर, क्या हम असीम के निकट पहुँच सकते हैं? वह तो हमारे मार्ग में बाधा ही डालेगा। कुछ विरले प्राणी ऐसे भी हैं, जो पैरों में यह बेड़ियाँ डालकर भी विकास के पथ पर चल सकते हैं, और चल रहे हैं। यह भी जानती हूँ कि पूर्णता के लिए पारिवारिक प्रेम और त्याग और बलिदान का बहुत बड़ा महत्व है; लेकिन मैं अपनी आत्मा को उतना दृढ़ नहीं पाती। जब तक ममत्व नहीं है, अपनत्व नहीं है, तब तक जीवन का मोह नहीं है स्वार्थ का ज़ोर नहीं है। जिस दिन मन मोह में आसक्त हुआ, और हम बन्धन में पड़े, उस क्षण हमारा मानवता का क्षेत्र सिकुड़ जायगा, नयी-नयी ज़िम्मेदारियाँ आ जायँगी और हमारी सारी शक्ति उन्हीं को पूरा करने में लगने लगेंगी। तुम्हारे जैसे विचारवान, प्रतिभाशाली मनुष्य की आत्मा को मैं इस कारागार में बन्दी नहीं करना चाहती। अभी तक तुम्हारा जीवन यज्ञ था, जिसमें स्वार्थ के लिए बहुत थोड़ा स्थान था। मैं उसको नीचे की ओर न ले जाऊँगी। संसार को तुम-जैसे साधकों की ज़रूरत है, जो अपनेपन को इतना फैला दें कि सारा संसार अपना हो जाय। संसार में अन्याय की, आतंक की, भय की दुहाई मची हुई है। अन्धविश्वास का, कपट-धर्म का, स्वार्थ का प्रकोप छाया हुआ है। तुमने वह आर्त-पुकार सुनी है। तुम भी न सुनोगे, तो सुननेवाले कहाँ से आयेंगे। और असत्य प्राणियों की तरह तुम भी उसकी ओर से अपने कान नहीं बन्द कर सकते। तुम्हें वह जीवन भार हो जायगा। अपनी विद्या और बुद्धि को, अपनी जागी हुई मानवता को और भी उत्साह और ज़ोर के साथ उसी रास्ते पर ले जाओ। मैं भी तुम्हारे पीछे-पीछे चलूँगी। अपने जीवन के साथ मेरा जीवन भी सार्थक कर दो। मेरा तुमसे यही आग्रह है। अगर तुम्हारा मन सांसारिकता की ओर लपकता है तब भी मैं अपना क़ाबू चलते तुम्हें उधर से हटाऊँगी और ईश्वर न करे कि मैं असफल हो जाऊँ, लेकिन तब मैं तुम्हारा साथ दो बूँद आँसू गिराकर छोड़ दूँगी, और कह नहीं सकती, मेरा क्या अन्त होगा, किस घाट लगूँगी, पर चाहे वह कोई घाट हो, इस बन्धन का घाट न होगा; बोलो, मुझे क्या आदेश देते हो?

मेहता सिर झुकाये सुनते रहे। एक-एक शब्द मानो उनके भीतर की आँखें इस तरह खोले देता था, जैसी अब तक कभी न खुली थीं। वह भावनायें जो अब तक उनके सामने स्वप्न-चित्रों की तरह आयी थीं, अब जीवन सत्य बनकर स्पिन्दन हो गयी थी। वह अपने रोम-रोम में प्रकाश और उत्कर्ष का अनुभव कर रहे थे। जीवन के महान् संकल्पों के सम्मुख हमारा बालपन हमारी आँखों में फिर जाता है। मेहता की आँखों में मधुर बाल-स्मृतियाँ सजीव हो उठीं, जब वह अपनी विधवा माता की गोद में बैठकर महान् सुख का अनुभव किया करते थे। कहाँ है वह माता, आये और देखे अपने बालक की इस सुकीर्ति को। मुझे आशीर्वाद दो। तुम्हारा वह ज़िद्दी बालक आज एक नया जन्म ले रहा है।
उन्होंने मालती के चरण दोनों हाथ से पकड़ लिये और काँपते हुए बोले -- तुम्हारा आदेश स्वीकार है मालती! और दोनों एकान्त होकर प्रगाढ़ आलिंगन में बँध गये। दोनों की आँखों से आँसुओं की धारा बह रही थी।

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